यह कहानी वास्तव में दिल को छूने वाली है, और यह एक ऐसे दर्दनाक अनुभव को सामने लाती है जिसका कोई भी माता-पिता सामना नहीं करना चाहते। पीयूष और वर्षा के लिए, जिनकी तीन साल की बेटी वियाना गंभीर ब्रेन ट्यूमर से जूझ रही थी, यह निर्णय पूरी तरह से असाधारण और भावनात्मक रूप से कष्टदायक था। इस स्थिति में, जब डॉक्टरों ने किसी भी तरह का इलाज संभव नहीं बताया और बच्ची की हालत और भी बिगड़ने लगी, तो उन्होंने "संथारा" का रास्ता चुना, जो जैन धर्म का एक परंपरागत व्रत है।
संथारा जैन धर्म के अनुयायियों के बीच एक धार्मिक प्रथा है, जिसमें व्यक्ति जानबूझकर अपने शरीर को छोड़ने के लिए तप करता है। यह प्रथा तब की जाती है जब किसी व्यक्ति की बीमारी या कठिनाई ऐसी हो कि उसे जीवित रहना बहुत कष्टप्रद हो। यह प्रथा मृत्यु की ओर अग्रसर होने के एक शांतिपूर्ण तरीके के रूप में देखी जाती है, लेकिन इसे समाज में विवादास्पद भी माना जाता है, क्योंकि इसे जीवन को समाप्त करने का एक रूप माना जाता है।
वियाना की कहानी में, इस प्रथा को उसकी परिवार ने तब अपनाया जब उन्हें यह लगा कि उनकी बेटी की हालत सुधारने की कोई उम्मीद नहीं बची है और वह उसके दर्द को और बढ़ता हुआ नहीं देख सकते थे।
क्या यह सही था?
यह एक बहुत ही जटिल और संवेदनशील मुद्दा है, और समाज में इसके बारे में अलग-अलग विचार हो सकते हैं। किसी भी माता-पिता के लिए यह कल्पना करना भी अत्यंत कष्टकारी होता है कि उन्हें अपनी संतान के लिए ऐसी स्थिति का सामना करना पड़े, जहां उन्हें उसे जानबूझकर मौत के करीब ले जाना पड़े। लेकिन इस निर्णय ने यह भी दिखाया कि कभी-कभी परिवार अपने प्रियजनों के दर्द को देखकर विवश हो जाते हैं और वे यह निर्णय लेते हैं, जो उन्हें लगता है कि उनके बच्चे के लिए सबसे कम कष्टकारी होगा।
यह घटना धार्मिक, नैतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से विचार करने के लिए बहुत कुछ देती है। लोग इस पर विभिन्न राय रख सकते हैं, लेकिन अंततः यह माता-पिता का निजी और संवेदनशील निर्णय था, जो उनकी स्थिति के हिसाब से किया गया था।