कानपुर न्यूज डेस्क: आईआईटी कानपुर के बायोसाइंसेज और बायोइंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर अशोक कुमार ने लिवर फाइब्रोसिस और सिरोसिस के इलाज के लिए रीजेनरेटिव मेडिसिन विकसित करने का दावा किया है। प्रोफेसर कुमार का कहना है कि लिवर ऐसा अंग है जो खुद को पुनर्जीवित कर सकता है, लेकिन गंभीर मामलों में यह प्रक्रिया रुक जाती है। उनकी टीम ने एक नई दवा बनाई है जो लिवर के स्वस्थ ऊतकों को पुनर्जीवित करने में सक्षम है।
आईआईटी कानपुर की इस दवा को भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICMR) ने क्लीनिकल ट्रायल की मंजूरी दी है। यह ट्रायल जल्द ही महाराष्ट्र के वर्धा के दत्ता मेघे अस्पताल में शुरू किए जाएंगे। प्रोफेसर कुमार ने बताया कि यह दवा न केवल लिवर फाइब्रोसिस बल्कि फैटी लिवर जैसी सामान्य बीमारियों के इलाज में भी प्रभावी होगी।
तेजी से बदलते जीवनशैली और अस्वास्थ्यकर खानपान की वजह से फैटी लिवर की समस्या आम होती जा रही है। जब यह समस्या बढ़ जाती है तो लिवर के स्वस्थ ऊतक क्षतिग्रस्त होकर उनकी जगह स्कार टिशू ले लेते हैं, जिससे लिवर सामान्य रूप से काम नहीं कर पाता। इस चुनौती को ध्यान में रखते हुए आईआईटी कानपुर ने टारगेटेड थेरेपी के तहत ऐसी दवा बनाई है, जिसका प्रभाव सिर्फ लिवर पर पड़ेगा और अन्य अंगों पर नहीं।
आईआईटी कानपुर की टीम ने रीढ़ की हड्डी और स्पाइनल कॉर्ड से जुड़ी चोटों के लिए भी एक विशेष मैटेरियल विकसित किया है। इस तकनीक का उद्देश्य टूटी हुई रीढ़ की हड्डी को जोड़ना और लकवे जैसी समस्याओं का इलाज करना है। एनिमल मॉडल पर किए गए परीक्षणों में यह तकनीक सफल रही है और ऊतकों को पुनर्जीवित करने में सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं।
क्लीनिकल ट्रायल के लिए आईसीएमआर के अलावा दिल्ली के इंस्टीट्यूट ऑफ लिवर एंड बिलियरी साइंसेज (ILBS) के साथ भी चर्चा चल रही है। भविष्य में मरीजों और ट्रायल केंद्रों की संख्या बढ़ाई जाएगी। इस दवा के सफल प्रयोग से चिकित्सा जगत में एक नई दिशा स्थापित हो सकती है।
रीजनरेटिव मेडिसिन की सफलता न केवल लिवर और स्पाइन की गंभीर बीमारियों का इलाज आसान बनाएगी, बल्कि लाखों मरीजों को एक नया जीवन देगी। प्रोफेसर कुमार का कहना है कि इन प्रयासों से भारत में चिकित्सा विज्ञान को एक नई ऊंचाई मिलेगी।
आईआईटी कानपुर के इन अनुसंधानों ने साबित किया है कि भारतीय वैज्ञानिक भी चिकित्सा क्षेत्र में नई क्रांतियां लाने में सक्षम हैं। यह तकनीक न केवल भारत के लिए बल्कि वैश्विक चिकित्सा समुदाय के लिए भी एक उपलब्धि साबित हो सकती है।